लोगों की राय

बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास-II

बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास-II

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2804
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास-II - सरल प्रश्नोत्तर

 

अध्याय- 8
तंजावुर पेंटिंग

(Thanjavur Painting) 

प्रश्न- तंजावुर के मन्दिरों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।

सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. चोल मन्दिरों के प्रारंभिक मन्दिर कहाँ स्थित हैं?
2. चोल मंदिरों में मुख्यतः किन देवी-देवताओं की मुतियाँ हैं?

उत्तर-

प्राचीन काल में भारतवर्ष के तमिल प्रदेश में तीन प्रमुख राज्य थे - चोल, चेर, पाण्डय। इन तीनों राज्यों का अपने-अपने समय में अस्तित्व रहा है। किन्तु कालान्तर में चोलों ने अपने लिए एक अति विशाल सम्राज्य की स्थापना कर डाली और चेर तथा पाण्ड्य राज्यों को भी अपने अधिकार में ले लिया। चोल राजवंश के उत्कर्ष का प्रमुख केन्द्र तंजौर व उसके आसपास का क्षेत्र रहा है। किन्तु चोल साम्राज्य की राजधानी मुख्यतः तंजौर ही थी ।

चोल साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक राजराज प्रथम था। इस सम्राट ने लगभग तीस वर्ष तक शासन किया । यही समय चोल राज्य का सबसे गौरवशाली युग रहा है। इसी शासक ने अनेक विजयों के उपरान्त एक लघु चोल राज्य को विशालकाय साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया था। अनेक विजयों के पश्चात् राजराज ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया जिसके अधिकार क्षेत्र में तुंगभद्रा नदी तक का पूरा दक्षिण भारत, सिंहल देश एवं मालदीव का कुछ अंश भी शामिल था। इस शासक ने अपनी महानता को सूचित करने के लिए चोल, मार्तण्ड, राजा मार्तण्ड, चोलेन्द्र सिंह आदि उपाधियाँ धारण की थीं।

राजराज प्रथम महान विजेता के साथ-साथ कुशल प्रशासक एवं महान निर्माता भी था। यह शासक भगवान शिव का अनन्य उपासक था। यही कारण रहा है कि उसने अपनी राजधानी तंजौर में राजराजेश्वर का विशाल मन्दिर बनवाया था। यह मन्दिर आज भी दक्षिण भारत के इतिहास का गौरवशाली स्मारक रहा है। यह स्मारक स्थापत्य कला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण भी प्रस्तुत करता है। इस शासक ने अन्य धर्मों को भी वही सम्मान दिया और नागपट्टम् नामक स्थान में शैलेन्द्र नामक शासक को इस स्थल पर बौद्ध विहार बनवाने के लिए प्रेरित किया था। राजराज प्रथम ने भी एक विष्णु मन्दिर का निर्माण करवाया तथा एक बौद्ध विहार को उसने ग्राम दान में दे दिया था। इस शासक ने जैन धर्म को भी प्रोत्साहित किया था। सम्राट राजराज प्रथम का पुत्र व उत्तराधिकारी राजेन्द्र प्रथम सम्राट की मृत्यु के पश्चात् चोल राज्य के सिंहासन पर बैठा। यह शासक भी अपने पिता के समान महत्वाकांक्षी व साम्राज्यवादी था। चोल के इतिहास में राजराज एवं उसके पुत्र राजेन्द्र प्रथम की चोल उपलब्धियाँ सर्वाधिक महत्वपूर्ण रही हैं। इन सम्राटों के शासनकाल में चोल साम्राज्य राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से उन्नति की चरम सीमा पर पहुँच गया था।

सम्राट राजेन्द्र प्रथम के गंगाघाटी अभियान की सफलता पर इस सम्राट ने 'गंगैकोण्ड' को उपाधि धारण की और इसी सफलता के उपलक्ष्य में उसने 'गंगैकोण्ड चोलपुरम्' (त्रिचनापल्ली में ) नाम की एक नूतन राजधानी की स्थापना की। इस शासक ने इसी स्थल पर एक शिव मन्दिर की स्थापना करायी जो चोल स्थापत्य का चरम विन्दु का द्योतक है।

इसी प्रकार चोल सम्राट विक्रम चोल का पुत्र कुलोत्तुंग द्वितीय ने भी अपनी शासनकाल में शान्ति बनाये रखी। लेकिन इस शासक की कोई राजनीतिक उपलब्धि महत्वपूर्ण नहीं है । किन्तु स्थापत्य (मन्दिर) में अपना महत्वपूर्ण योगदान इस शासक ने दिया । इस शासक ने चिदम्बरम के मन्दिर का नवीनीकरण एवं संवर्धन का महत्वपूर्ण कार्य किया। इस मन्दिर के प्रांगण में स्थित गोविन्दराज की प्रतिमा को कुलोत्तुंग ने हटवाकर सागर में डलवा दिया था। इस मन्दिर का स्थापत्य भी अत्यन्त आकर्षक व मनोहारी है। इस शासक के साथ-साथ शासक राजेन्द्र द्वितीय के काल में निर्मित दारासुरम् का मन्दिर आदि चोल कला की सर्वश्रेष्ठ निधियों में से एक हैं।

चोल मन्दिर स्थापत्य कला - चोलवंशी शासकों के समय कला एवं स्थापत्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुई । इस युग के शिल्पियों ने अपनी पूर्ण दक्षता का प्रदर्शन मन्दिर स्थापत्य एवं मूर्तियों के अंकन के माध्यम से किया है। मन्दिर स्थापत्य की तीन शैलियों के अन्तर्गत द्रविण वास्तु शैली को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाने का श्रेय चोलवंशी नरेशों को ही जाता है। इसीलिए चोल युग दक्षिण भारतीय कला का स्वर्णयुग माना जाता है। जेम्स फर्ग्यूसन ने इस वंश की कला के विषय में कहा है, “चोल कलाकारों ने दैत्यों के समान कल्पना की और जौहरियों के समान उसे पूर्ण किया । "

द्रविण वास्तु शैली का जो प्रारम्भ पल्लव काल में हुआ था, उसका पूर्ण विकसित रूप चोल मन्दिरों में दिखायी पड़ता है। चोल शासकों ने भव्य एवं विशाल अनेक मन्दिरों का निर्माण कराया था जो द्रविण शैली के सर्वोत्तम नमूने हैं।

चोलकालीन मन्दिरों के दो रूप दिखायी पड़ते हैं। काल क्रम एवं शैलीगत आधार पर विभिन्न विद्वानों ने इसे दो प्रमुख वर्गों में विभाजित किया है-

1. प्रारम्भिक मन्दिर,
2. परवर्ती मन्दिर ।

1. प्रारम्भिक मन्दिर - इस वर्ग के अन्तर्गत प्रारम्भिक काल के वे मन्दिर आते हैं जो पल्लव शैली से प्रभावित हैं, जो परवर्ती मन्दिरों की तुलना में लघु आकार के हैं। इस वर्ग के अन्तर्गत चोल शासक प्रथम आदित्य, परान्तक, राजराज प्रथम के द्वारा निर्मित कराये गये मन्दिर आते हैं।

प्रथम आदित्य के समय के मन्दिरों में त्रिचनापल्ली का तिरुतनतोरिश्वर मन्दिर, ओडवनेश्वर मन्दिर, पुष्पवनेश्वर मन्दिर, नागेश्वर मन्दिर, पंचनदीश्वर आदि मन्दिर आते हैं।

प्रथम परान्तक शासक के समय के मन्दिरों में ब्रह्मापुरीश्वर मन्दिर, कोरंगनाथ मन्दिर, सुन्देश्वर मन्दिर, गोमुक्तेश्वर मन्दिर व ईश्वर मन्दिर आते हैं।

चोल सम्राटों ने अपनी राजधानी में सर्वधिक प्रस्तर मन्दिरों का निर्माण करवाया था। इस काल के प्रारम्भिक मन्दिर पुडुकोट्टै जिले से प्राप्त होते हैं। इसमें इस वंश के प्रमुख शासक विजयालय ने अपनी विजयों की स्मृति में नार्त्तामलाई में चोलेश्वर मन्दिर का निर्माण करवाया था जिसे प्रथम चोल मन्दिर माना गया है। इसी प्रकार का दूसरा मन्दिर कन्ननूर का बालसुब्रमण्य मन्दिर है, इसे सम्राट आदित्य प्रथम ने बनवाया था। इसी समय का एक अन्य मन्दिर कुम्बकोनम में बना नागेश्वर मन्दिर हैं। इन सभी मन्दिरों में द्रविण शैली की विशेषताएँ देखी जा सकती हैं। जो पल्लव वास्तु परम्परा की सूचक भी हैं।

2. परवर्ती मन्दिर - सम्राट परान्तक प्रथम के राज्य काल में निर्मित त्रिचनापल्ली जिले के श्रीनिवासनल्लूर का कोरंगनाथ मन्दिर द्वितीय चरण को व्यक्त करता है। इस मन्दिर के काल-क्रम व शैलीगत आधार पर विद्वानों में मतभेद हैं। कोई विद्वान प्रारम्भिक व कोई परवर्ती काल का मानते हैं। इस प्रकार यह विवाद का विषय है। इस मन्दिर का नाम कपि के अपवित्र कर देने के कारण कोरंग पड़ा। इसीलिए इसे कोरंगनाथ मन्दिर के नाम से सम्बोधित किया जाता है। यह मन्दिर 50 फुट लम्बा है तथा इसका वर्गाकार गर्भगृह 25 फुट का है। इस मन्दिर का शिखर 50 फुट ऊँचा है। इस मन्दिर में सुन्दर मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गयी हैं जिनमें देव प्रतिमाओं के साथ साधारण मनुष्य व पशु का अंकन किया गया है। इस प्रकार वास्तु तथा मूर्ति उत्कीर्ण कला दोनों की दृष्टि से यह एक उत्कृष्ट कलाकृति मानी जाती है।

सम्राट राजराज प्रथम के समय सर्वोत्तम सुविकसित मन्दिर चोलों की राजधानी तंजौर में निर्मित वृहदीश्वर मन्दिर है जिसे राजराजेश्वर मन्दिर भी कहते हैं। यह मन्दिर चोल कला के द्वितीय चरण का परिपक्व उदाहरण है। इस मन्दिर के माध्यम से सम्राट के राजनीतिक शक्ति एवं समृद्धि का प्रदर्शन वृहदीश्वर मन्दिर में दृष्टिगोचर होता है।

तंजौर का वृहदीश्वर मन्दिर - चोल स्थापत्य का चरमोत्कर्ष त्रिचनापल्ली जिले में निर्मित वृहदीश्वर मन्दिर में दिखलायी पड़ता है। इस प्रसिद्ध मन्दिर का निर्माण चोल नरेश राजराज प्रथम ने करवाया था। तंजौर का यह भव्य शैव मन्दिर राजराज नरेश की गरिमा, साहस एवं समृद्धि को सूचित करता है। यह मन्दिर भारत के मन्दिरों में सबसे विशाल एवं लम्बा है जो स्थापत्य कला की उत्कृष्ट रचना मानी जाती है। यह मन्दिर दक्षिण भारतीय स्थापत्य के चरमोत्कर्ष का द्योतक है। यह मन्दिर द्रविण शैली का सर्वोत्तम उदाहरण माना गया है। इस मन्दिर का विशाल प्रांगण 500 फुट लम्बा 250 फुट चौड़ा आयताकार आकार का है। इस मन्दिर की रचना ग्रेनाइट पाषाणों खण्डों से की गयी है। यह पाषाण सर्वसुलभ नहीं है इसलिए मन्दिर के निर्माण हेतु दूर से लाये गये हैं। इस आयत के सामने 250 फुट का वर्ग भी है। इस वर्ग के बीच में कई छोटे मन्दिर और पुरोहितों के निवास गृह बने हैं जिनका कोई वास्तुगत महत्व नहीं है। प्रांगण के पश्चिमी भाग में वृहदीश्वर मन्दिर वास्तु का विशिष्ट तत्व विमान एवं महामण्डप एक ऊँचे चबूतरे पर बना हुआ है। विमान की रचना सर्वाधिक प्रभावोत्पादक है जिसकी ऊँचाई लगभग 200 फुट है। इस विमान का आधार 82 वर्ग फुट है तथा यह द्रविण शैली का सबसे ऊँचा विमान है। विमान के आधार के ऊपर त्रयोदश मंजिलों वाला पिरामिड के आकार का शिखर बना है जिसकी ऊँचाई 190 फुट है। इस अद्वितीय मन्दिर का गर्भगृह 44 वर्ग फुट का है जिसके चारों ओर प्रदक्षिणापथ बनाया गया है। मन्दिर के गर्भगृह के अन्दर एक विशाल शिवलिंग स्थापित किया गया है जो वृहदीश्वर नाम से प्रसिद्ध है। गर्भगृह के चारों ओर बने प्रदक्षिणापथ की भित्तियों पर आकर्षक चित्रों का निर्माण किया गया है। मन्दिर के विमान के अन्तिम तल पर चार नन्दी विशाल मूर्ति बनी हैं तथा मन्दिर की भित्तियों में बने ताखों में विभिन्न देव एवं देवियों की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। इस मन्दिर के प्रवेश द्वार पर दोनों ओर के आलों में द्वारपालों की मूर्तियाँ अंकित की गयी हैं।

इस प्रकार यह मन्दिर चोल नरेश राजराज के समय की मन्दिर योजना का एक नवीन तत्व माना गया है जो चोल मन्दिरों में अत्यन्त प्रसिद्ध है। यह मन्दिर भव्यता एवं कलात्मक सौन्दर्य की दृष्टि से दक्षिण भारत का सर्वश्रेष्ठ हिन्दू स्मारक है तथा वास्तु कलाकारों की अदभुत कल्पना शक्ति का परिचायक है। प्रसिद्ध विद्वान पर्सी ब्राउन ने इस मन्दिर के विषय में कहा है कि, "इस मन्दिर का विमान द्रविण शैली की सर्वोत्तम रचना के साथ-साथ समस्त भारतीय स्थापत्य की अनूठी कसौटी है।"

गंगैकोण्ड चोलपुरम् का मन्दिर - गंगैकोण्ड चोलपुरम् के मन्दिर का निर्माण वृहदीश्वर मन्दिर के निर्माण के लगभग 20 वर्ष के पश्चात् चोल नरेश राजराज प्रथम के पुत्र राजेन्द्र प्रथम ने करवाया था । राजेन्द्र प्रथम ने गंगा घाटी विजय के उपरान्त गंगैकोण्ड चोलपुरम् नाम की एक नवीन राजधानी बनायी और इसी नगर में उसने वृहदीश्वर नाम से ही एक नवीन शिव मन्दिर का निर्माण अपनी विजय यात्रा की स्मृति में करवाया था। यह मन्दिर भी द्रविण शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है। जो तंजौर से उत्तर-पूर्व की ओर लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गंगैकोण्ड चोलपुरम् नामक नगर में स्थित है। इस मन्दिर की निर्माण योजना लगभग तंजौर के वृहदीश्वर मन्दिर के समकक्ष ही है किन्तु आवश्यकतानुसार विभिन्न वास्तुगत परिवर्तन भी दृष्टिगोचर होते हैं।

यह मन्दिर 340 फुट लम्बा और 100 फुट चौड़ा आयताकार प्राकार के भीतर बनाया गया है, जिसमें उत्तर की ओर एक तोरण द्वार तथा पूर्व की ओर मन्दिर का मुख्य प्रवेश द्वार बना हुआ है। इस मन्दिर का विमान एवं मण्डप आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त है लेकिन प्राकार का अधिकांश भाग क्षतिमस्त हो चुका है। इस मन्दिर का विमान 100 वर्ग फुट के आधार पर बना है जो 86 फुट ऊँचा है। यह विमान आठ मंजिला पिरामिडाकार रूप में है और इस विमान के शीर्ष पर गोल स्तूपिका निर्मित की गयी है। मन्दिर के मुख्य प्रवेश द्वार के बाद महामण्डप है जो 175 फुट x 95 फुट के आकार का है। मण्डप एवं गर्भगृह को सम्बद्ध करते हुए अन्तराल बनाया गया है। यह अन्तराल भव्य है तथा इसके उत्तरी एवं दक्षिणी ओर प्रवेश द्वार भी बने हैं जिनसे होकर हो गर्भगृह में प्रवेश किया जा सकता है। अन्तराल एवं मण्डप दोनों की छतें सपाट बनायी गयी हैं। लेकिन अन्तराल की छत मण्डप से ऊँची हैं। इस मन्दिर का मण्डप 250 पंक्तिबद्ध स्तम्भों के आधार पर बना है तथा स्तम्भ पंक्तियों को अलग आधार दिया गया है । मण्डप के अलंकरण में शिल्पियों ने अपनी कला-कौशलता दिखलायी है। मन्दिर की बाह्य भित्तियाँ भी विभिन्न देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के साथ अनेकों प्रकार के आकर्षक अलंकरण से अलंकृत की गयी हैं । यहाँ की उत्कीर्ण कलाकृतियाँ तंजौर के वृहदीश्वर मन्दिर की तुलना में अत्यधिक सुन्दर, आकर्षक व कोमल हैं।

इस प्रकार स्थापत्य कला में चोल मन्दिर का महत्वपूर्ण स्थान है जो चोल स्थापत्य के चरमोत्कर्ष को बिम्बित करता है। यह मन्दिर चोल नरेशों की महानता, पौरुषता एवं गौरवगाथा का सूचक भी है।

चोल मूर्तिकला - चोल काल स्थापत्य कला के क्षेत्र में विख्यात रहा है और द्रविण वास्तु कला की पराकाष्ठा को प्रतिबिम्बित करता है। इस काल में मूर्तिकला के क्षेत्र में भी चोल कलाकारों ने अपनी कला, प्रतिमा का सफलता के साथ प्रदर्शन किया है। कलाकारों ने पाषाण एवं धातु की मूर्तियों का निर्माण किया है जिनकी संख्या अत्यधिक है। इस काल की प्रारम्भिक मूर्तिकला स्थापत्य कला की भाँति पल्लव शैली से प्रेरित दिखायी पड़ती है। मूर्तियों में इस शैली की ही प्रधानता दिखायी पड़ती है। किन्तु बाद की प्रतिमाओं में भिन्नता दृष्टिगोचर होने लगती है । इस समय की कलाकृतियों की प्रमुख विशेषता यह है कि मूर्तियाँ पूर्ण उभार के साथ उत्कीर्ण की गयी हैं और वे भित्तियों की सहायता से खड़ी प्रतीत होती हैं। मूर्तिकारों ने इन मूर्तियों के अंग-प्रत्यंग के गठन में पूर्ण सावधानी व सूक्ष्मता का परिचय दिया है।

इन मूर्तियों में सर्वाधिक मूर्तियाँ देवी-देवताओं की मिलती हैं। इसका कारण यह रहा है कि चोल वंशी शासक उत्साही व धार्मिक प्रकृति के थे और शैव धर्म के प्रमुख उपासक रहे हैं। अतः इस समय शैव धर्म से सम्बन्धित देव प्रतिमाओं का अंकन ही सर्वाधिक हुआ था। ऐसी धार्मिक प्रतिमाओं में धातु की अत्यधिक प्रतिमाओं का निर्माण हुआ ।

धातु मूर्तियों में नटराज (शिव) की मूर्तियाँ बड़ी संख्या में प्राप्त होती हैं तथा यह वर्तमान में भी दक्षिण भारत के विभिन्न स्थलों पर विराजमान हैं। इन प्रतिमाओं को पूरी श्रद्धा के साथ पूजा जाता है। तिरुवलनकडु क्षेत्र से शिव के अर्धनारीश्वर रूप की एक प्रतिमा पायी गयी है जो मद्रास के संग्रहालय में सुरक्षित है। यह प्रतिमा शिव के अर्धनारीश्वर रूप को प्रकट करती है, जिसमें नारी एवं पुरुष दोनों ही रूपों का अंकन मूर्तिकारों ने बड़ी सफलता के साथ किया है तथा नारी के शारीरिक अंगों को उभारने में मूर्तिकार की दक्षता दिखायी पड़ती है।

शिव की प्रतिमाओं में सर्वश्रेष्ठ उदाहरण तंजौर के वृहदीश्वर मन्दिर से प्राप्त नटराज की प्रतिमा है। इस मूर्ति में नटराज को नृत्य करते हुए दिखाया गया है तथा उनके अंग-प्रत्यंग में स्फूर्ति दिखायी पड़ रही है। नटराज के दाहिने हाथ में उनका प्रिय वाद्य डमरू का अंकन किया गया है और वाम हाथ में अशिवदाहक अग्नि की लपटें निकलती हुई दिखायी गयी हैं।

शिव की सुन्दर व आकर्षक प्रतिमाओं के साथ-साथ अन्य हिन्दू देवी-देवता का भी अंकन किया गया है, जिनमें ब्रह्मा, विष्णु, लक्ष्मी, राम-सीता, कालिया नाग पर नृत्यरत् बालकृष्ण मूर्तियाँ प्रमुख हैं। इस समय कुछ सन्तों की मूर्तियाँ भी बनायी गयी हैं जो कलात्मक दृष्टि से आकर्षक व विशाल हैं।

चोल शिल्पियों ने धातु प्रतिमाओं के अंकन में एक विशिष्ट विधा का प्रयोग किया था जिसके कारण धातु मूर्तियाँ स्वतन्त्र रूप से निर्मित की गयी थीं। इस काल की मूर्तिकला मुख्य रूप से वास्तु कला की सहायक बनी रही और यही कारण है कि अधिकांश प्रतिमाओं का उपयोग मन्दिर के अलंकरण हेतु प्रयोग किये गये हैं। यहाँ के मन्दिरों की चौकी, भित्तिकाओं आदि पर शिव के विविध रूपों का अंकन किया गया है। इसके अतिरिक्त अन्य देवताओं का भी सुन्दर अंकन यहाँ किया गया है। यहाँ के मन्दिर की चौकी के अलंकरण इतने सुन्दर व लोकप्रिय हैं कि इनका प्रभाव सुदूर देशों के मन्दिरों पर भी पड़ा।

चोल चित्रकला - चोल काल में स्थापत्य एवं मूर्तिकला के साथ - साथ. चित्रकला का भी विकास हुआ। इस युग के परिश्रमी कलाकारों ने मन्दिर की भित्तियों पर अनेक सुन्दर चित्रों का अंकन किया। इस प्रकार के अधिकांश चित्र वृहदीश्वर मन्दिर की भित्तियों पर पाये गये हैं तथा इस मन्दिर में चित्रों की कई परतें हैं। ये चित्र अत्यन्त आकर्षक एवं कलापूर्ण हैं। इन चित्रों का मुख्य विषय पौराणिक धर्म से सम्बन्धित है। यहाँ के प्रमुख चित्रों में शिव, शिव का वृद्ध रूप, शिव- विवाह, नटराज, त्रिपुरान्तक देवाकृतियाँ तथा सन्तों के चित्र व राक्षस का वध करती हुई दुर्गा, सपरिवार शिव की पूजा करते नरेश आदि मुख्य रहे हैं।

तंजौर के वृहदीश्वर मन्दिर को भित्ति पर भगवान शिव का मनोरम चित्रण किया गया है। इस चित्र में शिव को आसन लगाये मुद्रा में चित्रित किया गया है जिनका एक दाहिना हाथ ऊपर की ओर उठा हुआ है तथा एक हाथ दाहिने पैर के घुटने पर टिका हुआ है। शिव को पूर्ण अलंकरण धारण किये हुए दिखाया गया है। यह चित्र विशेष प्रकार से बनाया हुआ प्रतीत होता है। रेखाएँ लहराती हुई न बनाकर लघु खण्डों में विभक्त हैं फिर भी यह चित्र अत्यन्त आकर्षक दिखायी पड़ता है। यह चित्र चोलं कला की निजी शैली मानी जा सकती है।

तंजौर के इन चित्रों का निर्माण शंख व सीपी के बारीक चूर्ण मिश्रित चूने के प्लास्टर पर किया गया है और प्रस्तर व मिट्टी से प्राप्त वर्णों का प्रयोग चित्र को रँगने हेतु किया गया है। इन सुन्दर चित्राकृतियों के निर्माण में चोल कलाकारों ने अपनी अदभुत कला-कौशलता का परिचय दिया है।

इस प्रकार चोल नरेशों के शासनकाल में राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से उन्नति हुई। इस समय स्थापत्य कला, मूर्तिकला एवं संस्कृति का इतना विकास हुआ कि वह अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया और बाद के अन्य युगों में इस प्रकार का हर क्षेत्र में सम्यक् विकास दिखायी नहीं पड़ता है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. प्रश्न- पाल शैली पर एक निबन्धात्मक लेख लिखिए।
  2. प्रश्न- पाल शैली के मूर्तिकला, चित्रकला तथा स्थापत्य कला के बारे में आप क्या जानते है?
  3. प्रश्न- पाल शैली की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।
  4. प्रश्न- पाल शैली के चित्रों की विशेषताएँ लिखिए।
  5. प्रश्न- अपभ्रंश चित्रकला के नामकरण तथा शैली की पूर्ण विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- पाल चित्र-शैली को संक्षेप में लिखिए।
  7. प्रश्न- बीकानेर स्कूल के बारे में आप क्या जानते हैं?
  8. प्रश्न- बीकानेर चित्रकला शैली किससे संबंधित है?
  9. प्रश्न- बूँदी शैली के चित्रों की विशेषताओं की सचित्र व्याख्या कीजिए।
  10. प्रश्न- राजपूत चित्र - शैली पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
  11. प्रश्न- बूँदी कोटा स्कूल ऑफ मिनिएचर पेंटिंग क्या है?
  12. प्रश्न- बूँदी शैली के चित्रों की विशेषताएँ लिखिये।
  13. प्रश्न- बूँदी कला पर टिप्पणी लिखिए।
  14. प्रश्न- बूँदी कला का परिचय दीजिए।
  15. प्रश्न- राजस्थानी शैली के विकास क्रम की चर्चा कीजिए।
  16. प्रश्न- राजस्थानी शैली की विषयवस्तु क्या थी?
  17. प्रश्न- राजस्थानी शैली के चित्रों की विशेषताएँ क्या थीं?
  18. प्रश्न- राजस्थानी शैली के प्रमुख बिंदु एवं केन्द्र कौन-से हैं ?
  19. प्रश्न- राजस्थानी उपशैलियाँ कौन-सी हैं ?
  20. प्रश्न- किशनगढ़ शैली पर निबन्धात्मक लेख लिखिए।
  21. प्रश्न- किशनगढ़ शैली के विकास एवं पृष्ठ भूमि के विषय में आप क्या जानते हैं?
  22. प्रश्न- 16वीं से 17वीं सदी के चित्रों में किस शैली का प्रभाव था ?
  23. प्रश्न- जयपुर शैली की विषय-वस्तु बतलाइए।
  24. प्रश्न- मेवाड़ चित्र शैली के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  25. प्रश्न- किशनगढ़ चित्रकला का परिचय दीजिए।
  26. प्रश्न- किशनगढ़ शैली की विशेषताएँ संक्षेप में लिखिए।
  27. प्रश्न- मेवाड़ स्कूल ऑफ पेंटिंग पर एक लेख लिखिए।
  28. प्रश्न- मेवाड़ शैली के प्रसिद्ध चित्र कौन से हैं?
  29. प्रश्न- मेवाड़ी चित्रों का मुख्य विषय क्या था?
  30. प्रश्न- मेवाड़ चित्र शैली की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए ।
  31. प्रश्न- मेवाड़ एवं मारवाड़ शैली के मुख्य चित्र कौन-से है?
  32. प्रश्न- अकबर के शासनकाल में चित्रकारी तथा कला की क्या दशा थी?
  33. प्रश्न- जहाँगीर प्रकृति प्रेमी था' इस कथन को सिद्ध करते हुए उत्तर दीजिए।
  34. प्रश्न- शाहजहाँकालीन कला के चित्र मुख्यतः किस प्रकार के थे?
  35. प्रश्न- शाहजहाँ के चित्रों को पाश्चात्य प्रभाव ने किस प्रकार प्रभावित किया?
  36. प्रश्न- जहाँगीर की चित्रकला शैली की विशेषताएँ लिखिए।
  37. प्रश्न- शाहजहाँ कालीन चित्रकला मुगल शैली पर प्रकाश डालिए।
  38. प्रश्न- अकबरकालीन वास्तुकला के विषय में आप क्या जानते है?
  39. प्रश्न- जहाँगीर के चित्रों पर पड़ने वाले पाश्चात्य प्रभाव की चर्चा कीजिए ।
  40. प्रश्न- मुगल शैली के विकास पर एक टिप्पणी लिखिए।
  41. प्रश्न- अकबर और उसकी चित्रकला के बारे में आप क्या जानते हैं?
  42. प्रश्न- मुगल चित्रकला शैली के सम्बन्ध में संक्षेप में लिखिए।
  43. प्रश्न- जहाँगीर कालीन चित्रों को विशेषताएं बतलाइए।
  44. प्रश्न- अकबरकालीन मुगल शैली की विशेषताएँ क्या थीं?
  45. प्रश्न- बहसोली चित्रों की मुख्य विषय-वस्तु क्या थी?
  46. प्रश्न- बसोहली शैली का विस्तार पूर्वक वर्णन कीजिए।
  47. प्रश्न- काँगड़ा की चित्र शैली के बारे में क्या जानते हो? इसकी विषय-वस्तु पर प्रकाश डालिए।
  48. प्रश्न- काँगड़ा शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
  49. प्रश्न- बहसोली शैली के इतिहास पर प्रकाश डालिए।
  50. प्रश्न- बहसोली शैली के लघु चित्रों के विषय में आप क्या जानते हैं?
  51. प्रश्न- बसोहली चित्रकला पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
  52. प्रश्न- बहसोली शैली की चित्रगत विशेषताएँ लिखिए।
  53. प्रश्न- कांगड़ा शैली की विषय-वस्तु किस प्रकार कीं थीं?
  54. प्रश्न- गढ़वाल चित्रकला पर निबंधात्मक लेख लिखते हुए, इसकी विशेषताएँ बताइए।
  55. प्रश्न- गढ़वाल शैली की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की व्याख्या कीजिए ।
  56. प्रश्न- गढ़वाली चित्रकला शैली का विषय विन्यास क्या था ? तथा इसके प्रमुख चित्रकार कौन थे?
  57. प्रश्न- गढ़वाल शैली का उदय किस प्रकार हुआ ?
  58. प्रश्न- गढ़वाल शैली की विशेषताएँ लिखिये।
  59. प्रश्न- तंजावुर के मन्दिरों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।
  60. प्रश्न- तंजापुर पेंटिंग का परिचय दीजिए।
  61. प्रश्न- तंजावुर पेंटिंग की शैली किस प्रकार की थी?
  62. प्रश्न- तंजावुर कलाकारों का परिचय दीजिए तथा इस शैली पर किसका प्रभाव पड़ा?
  63. प्रश्न- तंजावुर पेंटिंग कहाँ से संबंधित है?
  64. प्रश्न- आधुनिक समय में तंजावुर पेंटिंग का क्या स्वरूप है?
  65. प्रश्न- लघु चित्रकला की तंजावुर शैली पर एक लेख लिखिए।

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book